शरत्ऋतु की पृर्णिमा थी , रात्रि का समय था । भगवान श्यामसुन्दर वन में पधारे । मुरलीधर ने बंशी की तान छेडी । बंशी की ध्वनि कान में पड़ते ही ब्रज…गोपियाँ व्याकुल हो गई । जिस के हाथ में जो काम था, वह उसे छोड़कर बावरी के सामान वन की ओर भागी ।
गोपियों को अपने पास आई देखकर श्रीकृष्ण ने बनावटी आश्चर्य कै साथ कहा… अरी गोपियों! रांत्रि कै समय तुम वन में कैंसे आ गईं ? गोपी धीरज धारण करके दीन भाव से बोलीं-हमारे प्यारे चितचोर ! घरवालों से हमारा संबंध लौकिक है, उसे हम नहीं मानतीं । हम तो तुम्हारे उस दिव्य प्रेम की प्यासी हैं, जो संसार कै आवागमन से मुक्त कराता है । हमें निराश न करो मोहन , अपना लो ।
करूणासागर नंदनंदन उनके प्रेम…भाव से संतुष्ट होकर उनकें साथ भाँति-भाँति की क्रीडा करने लगे । देंव-योग से गोपियों के मन में ऐसा गर्व उदित हुआ कि संसार के हम सबसे अधिक भाग्यशालिनी स्त्रियाँ हैं । श्रीकृष्ण ने उनका भाव कैसे छिपता?
अत: वे तत्काल अंतध्यर्रन हो गये । तब तो गोपियों के विषाद की सीमा नहीं रही ।
सखियाँ परमात्मा की स्तुति करती है। इस स्तुति को महापुरूष "गौपीगीत कहते हैं । यह अत्यन्त दिव्य गीत है । श्रीमदभागवत के लगभग सभी टीकाकार गोयीगीत दो वर्णन में अपनी देह का भान तक भूल गये हैं । श्री महाप्रभु जीं, श्रीमद् वल्लभाचार्य जी , श्री सनातन गोस्वामी , श्रीजीव गोस्वामी, श्रीविश्वनाथचक्रबर्ती , श्री श्रीधर स्वामी-वृन्दावन में रहने वाले ये सब महापुरूष तथा अन्य बहुत से महापुरूष गोपीगीत का वर्णन करते-करते प्रेम में प्रेमस्वरूप हो गये हैं। '
गोपी का अर्थ है गोपनशीला । अपने प्रेम क्रो छिपाने वाली है । प्रेम बाजार मे पुकारते चलने क्री बस्तु नहीं है । वह ह्रदय में गुप्त रखने की वस्तु है । श्रीकृष्ण की ईश्वरता तथा अपने प्रेम को गुप्त रखने के कारण गोपी को गोपी कहा जाता है । गो कहते हैं इद्रियों को । अपनी इंद्रियों से जो श्रीकृष्ण के रस का पान करती हैं, उन्हें गोपी कहते है।
प्रभु के मुख से प्रकट हुई वेद की ऋचाओं ने खूब तप किया और वे गोलोक धाम पहुँचीं । वहाँ उन्होंने आनन्दघन स्वरूप के साक्षात् दर्शन किये तथा दिव्य अलौकिक अखण्ड रास के भी दर्शन किये । उनकी रसानुभूति करने की आतुरता को देख प्रभु ने आज्ञा दी और उस आज्ञा को प्राप्त कर श्रीकृष्णावतार में वे ऋचायें ही श्रुतिरूया गोपियाँ बनीं ।
दण्डकारण्ड्य में श्रीसीतारांमजी कै दर्शन कर सोलह हजार ऋषि मंत्रमुग्ध हो गये । उनके ह्रदय में उत्कंठा जगी कि वे श्री सीताजी की तरह श्रीराम से मिलने का सुख-लाभ करें । उनको भी प्रभु ने आज्ञा दी और वे ऋषि श्री कृष्णावतार में ऋषिरूपा गोपियों कै रूप में अवतरित हुए।
यद्यपि ये गोपियाँ-गोपनशील हैं किन्तु 'श्रीकृष्णचन्द्र के वियोग में शरीर छूट गया तो उन प्रियतम को बहुत दुख होगा । 'यह समझकर जीबन-रक्षा कै लिए बियोग की पीड़ा को बोलकर कम करने के हेतु बोलती है।
अपने अभिमान के कारण प्रभु की अवज्ञा कर डालने वाली उन्नीस प्रकार की गोपियों ने प्रभु को रिझाने कै लिए उन्नीस श्लोकों के द्वारा जो स्तुति की, वही दिव्य गोपी-गीत है ।
गोपी… विरह-गीत की भाषा भले ही लौकिक हो किन्तु , उनमे निहित भावना तो दिव्य प्रम की ही है । प्रभु-मिलन कै लिए तड़पती अकुलाते गोपियों के शरीर, मन प्राण प्रभु कै स्मरण मे रम गये । उसके पश्च्यात प्रेमोन्माद का प्रतीक -जैसा, यह अलोकिक प्रेम गीत उन्होंने गाया । यह गीत आज तक भी भावुको को भाव-मग्न कर प्रभू के लीला लोक मे पहुंचा देता है।
संयोग में तो भाव बदल जाते हैं, किन्तु वियोग में सभी भाव एक जैसे हो जाते हैं । सभी के मन में यही भावना तीव्र रूप से रहती है कि किसी प्रकार श्रीकृष्ण प्रकट हौं । श्रीकृष्ण-वियोग मे गोपियाँ एक भाव से तथा एक स्वर में परमात्मा का गान करती है । इस गोपी-गीत कै छन्द को ' कनकमंजरी ' नाम दिया गया है । कुछ आचार्यों ने इस छन्द को ' इंदिरा ‘ नाम दिया है, क्योंकि वे आचार्य मानते है कि ये सभी गोपियाँ लक्ष्मरैरूपा हैं तथा वे परमात्मा की स्तुति कर रही हें…लख्मी सहस्त्रलीलाभि: सेव्यामनं कलानिधिम्।
ऐसै आचार्य कहते है कि गोपियाँ लक्ष्मीजी की अंशस्वरूथा है तथा वे प्रभु की प्रेम से स्तुति कर रही हैं । उनकी यह स्तुति ही गोपी-गीत है । वास्तव में हम सभी गोपियाँ ही है जिनके मन मे श्रीकृष्ण-दर्शन की इच्छा है, वह गोपी ही है, चाहे उसका यह शरीर स्त्री का हो या पुरूष का । महापुरूष शरीर का बिचार नहीं करते । गोपी शब्द का अर्थ श्रीशुकदेबजी ने किया है कि श्रीकृष्ण-दर्शन की तीव्र अभिलाषा ही गोपी है । (श्रीकृष्ण दर्शन लालसा) सबको गोयी-गीत का पाठ गोपी होकर ही करना चाहिए । इसका नित्य पाठ करने से मन शुद्ध होता है।